चश्मा की खोज Looking For Eye Glasses
हम चश्मे का उपयोग तो सभी करते हैं लेकिन आपको मालूम हैं चश्मे की खोज किसने और कहॉ की |
भारत में चश्मे का अविष्कार ईसा से पॉच सौ बर्ष पहले हो चुका था | ईसा के बाद छठी शताब्दी में ह्रेनसांग नाम का एक चीनी विद्वान भारत आया था | उसने भारत की जिन अनेक अद्भुद वस्तुओं का वर्णन किया है, उनमें आंखों के लिए चमकदार लेंस भी है | भारत से बाहर यूनान में वहां के प्रसिद्ध चिकित्सक मुक्लिड़ ने आंखों पर अपना एक ग्रंथ लिखा था – आप्टिक्स | लेकिन चश्मे के बारे में उस ग्रंथ में भी कोई विशेष जानकारी नहीं है | 1038 ईस्वी में मिस्र में भी आंखों पर एक पुस्तक लिखी गई और उसमें आंखों की रोशनी बढ़ाने के लिए लेंस के उपयोग की चर्चा भी की गई |
चश्मे के विकास में चीन का भी योगदान महत्वपूर्ण है | कहा जाता है कि ईसा से 2883 बर्ष पूर्व एक चीनी सम्राट ने सितारों के अवलोकन के लिए पारदर्शी पत्थरों से बने लेंस का प्रयोग किया गया था | ईसा से 551 बर्ष पूर्व कनफ्यूशियस के समय में एक गरीब आदमी को शीशे की सहायता से ज्योति प्रदान की गई थीं | आमतौर से तो वहां यही बात प्रचलित थी कि जब चीनी सरदारों की आंखों की ज्योति कम हो जाती तो वे अपने दासों को यह काम सौंपा करते थे कि वे उन्हें पढ़कर सुनाएं | नेत्र ज्योति के बारे में तकनीकी ज्ञान और लेंस के प्रयोग की बात चीन ने लगभग छठी शताब्दी में भारत से सीखी | के. एस, लेटोरेट ने अपनी पुस्तक चीनी इतिहास एंव सभ्यता में लिखा है कि चीनियों ने शीशे के लेंस का प्रयोग भारत से ही सीखा है और इसका वर्णन विश्वसनीय रूप से तंग वंश ( सन् 618 ई.) में किया गया है |
एक दुसरे लेखक एफ. एच. गैरीसन का कहना है कि लगभग 1260 ई. में चीनियों ने इसे तुर्किस्तान से सीखा और तुर्किस्तान ने भारत से | इससे यह तो स्पष्ट है कि नेत्र विज्ञान और चश्मे का जन्म भारत मे ही हुआ और यहीं से अन्य देशों में गया |
चीनियों इसके बाद चश्मे की निर्माण कला के विकास मे काफी योगदान किया | नेत्र ज्योति के लिए चीन में लेंस का प्रयोग छठी शताब्दी मे हुआ और तेरहवीं शताब्दी में वहा चश्मे का निर्माण हुआ |
चौदहवीं शताब्दी में आते – आते चश्मा, चीन मे प्रतिभा और ऊंचे पद का प्रतीक समझा जाने लगा | उन दिनों एक चीनी सरदार ने अपना घोड़ा देकर एक चश्मा खरीदा था | चीनी लोग कछुए को पवित्र मानते थे | इसलिए वे कछुए की पीठ की हड्डी स चश्मे बनाते थे , जो अत्यन्त होता था | कुछ फ्रेम पशुओं के सीगों से भी बनाए जाते थे |
चश्मे के विकास में इटली का भी उल्लेखनीय योगदान रहा | वहां तेरहवीं के उत्तरार्द्ध में नेत्र ज्योति बढ़ाने के लिए लेंस का प्रयोग काफी बड़ी मात्रा मे किया जाने लगा था | 1840 ईसवीं तक लेंस की सहायता से चश्मा बन चुका था | इसी बर्ष बने एक पादरी के चित्र में चश्मे का रेखांकन भी किया गया था |
1785 ईसवीं में बाइफोकल चश्मे का अविष्कार हुआ , जिसमें नीचे के हिस्से में नजदीक से पढ़ने का तथा ऊपर के हिस्से से दूर देखने का लेंस लगा हुआ था | एक ही चश्मे में दोनों लेंस होने से दो चश्मे रखने का झंझट मिट गया | चश्मे के विकास में अगली सीढ़ी उस समय चढ़ी गई , जब 1887 में आँखो के अन्दर ‘ कांटेक्ट लेंस ‘ लगाने में सफलता प्राप्त की गई |
नेत्र ज्योति होने पर यदी तत्काल चश्मा लगवा लिया जाए तो उससे ज्योति को यथावत बनाए रखने में मदद मिलती है, अन्यथा ज्योति कम होती चली जाती है |
चश्मे का प्रचार धीरे – धीरे ध्रुव प्रदेश तक जा पहुंच | वहां पर बर्फ की चौंध से बचने के लिए काले चश्मे का प्रयोग किया जाने लगा | भारत – चीन तथा अन्य देशों में भी इस समय तक धूप से बचने के लिए काले चश्मे का प्रयोग किया जाने लगा था |
उसके बाद काला चश्मा अन्य देशों में भी फेला | आजकल तो चश्मा अनेक रगों में हमें बाजार में मिल जाता है और उसके आकार -प्रकार में भी अनेक परिवर्तन हो रहे हैं | आज के युग में हम चश्मे को नेत्र ज्योति बढ़ाने के लिए भी काम में लेते हैं और फैशन के रूप में भी | लेकिन यह स्पष्ट हैं कि चश्मे को अपना वर्तमान स्वरूप प्राप्त करने के लिए एक लम्बी यात्रा पूरी करनी पड़ी है और आज भी उसकी यह यात्रा जारी है |
उम्मीद करता हूँ चश्मे की यह यात्रा आपको पसंद आई होगी | मैंनें यह जानकारी ‘ विकास एस.खत्री ‘ द्वारा लिखित ‘ 100 आश्चर्यजनक खोजें ‘ पुस्तक से ली है |
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