जमीन पर बैठ कर पत्नी के हाथों का खाना खाते थे भारत के राष्ट्रपति, जानें कौन थे वह

आजादी के बाद भारते के कुछ ऐसे राष्ट्रपति भी मिले जिन्होंने अपनी सैलरी से लेकर अपने जीवन तक को देश के नाम कर दिया। इसमें से एक थे भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद। वैसे तो वे पटना के सबसे महंगे वकीलों में से एक थे। लेकिन जैसे ही वह महात्मा गांधी के साथ आजादी की लड़ाई में जुड़े, उन्होंने सब कुछ छोड़कर अपना पूरा जीवन देश सेवा के नाम कर दिया। ऐसे में आइए जानते है उनके जीवन के कुछ पहलू को जो आपको शायद ना पता हो…

डॉ राजेंद्र प्रसाद 1950 में भारत के पहले राष्ट्रपति बने थे। उस समय राष्ट्रपति को लंबे-चौड़े वायसराय हाउस में रहना होता था। ये उन दिनों का सबसे लंबा और बेहतरीन सरकारी आवास था। लोग उसके अंदर जाने के लिए भी तरस्ते थे। लेकिन डॉ राजेंद्र प्रसाद को जब वहां रहने का मौका मिला तो वह काफी हिचकिचा रहे थे। उन्हें हमेशा से ही एक साधारण जिंदगी पसंद थी। ऐसे में उस समय से प्रोटोकोल को अपनाते हुए वे प्रेसीडेंट हाउस में चले तो गए। लेकिन उन्होंने वहां जाकर सबसे पहले हाउस का नाम बदलकर राष्ट्रपति भवन रखा।

सैलरी का 25 फीसदी हिस्सा ही रखते थे डॉ राजेंद्र प्रसाद

1950 में डॉ राजेंद्र प्रसाद की सैलरी 10000 रुपए प्रति माह थी। जो उस वक्त के लिए काफी बड़ी सैलरी था। लेकिन उन्होंने मितव्ययिता का उदाहरण देते हुए सिर्फ 25 फीसदी हिस्सा ही सैलरी के रूप में लेते थे। वे बाकी का 75 फीसदी सैलरी सरकारी निधि में दान दे देते थे।

कूक की जगह पत्नी के हाथों का खाना खाते थे डॉ राजेंद्र प्रसाद

वे इतने जमीन से जुड़े व्यक्ति थे की देश के राष्ट्रपति होने के बाद भी उन्होंने सिर्फ एक अतिरिक्त स्टॉफ रखा था। उनका खाना कोई खानसामा नहीं बल्कि उनकी पत्नी ही बनाती थीं। ऐसे में उन्होंने राष्ट्रपति भवन के किचन को भारतीय परंपरागत भोजन के नाम दिया था। वह हमेशा जमीन पर बैठकर ही खाते थे।

तोहफे से बनाकर रखी थी दूरी

डॉ राजेंद्र प्रसाद जब राष्ट्रपति थे तभी उनकी पोतियों की शादी हुई थी। लेकिन वह इतने स्वाभीमानी नेता थे कि उसमें भी उन्होंने सख्ती से कहा था कि कोई भी उपहार नहीं दिया जाएगा। उन्होंने तमाम तरह के उपहार लेने से मना कर दिया था। आलम ऐसा था कि जो लोग उपहार लेकर चले आएं थे, उन्हें भी डॉ साहिब ने विनम्रता से वापस ले जाने को कह दिया। अपने पोतियों की शादी में उन्होंने खुद हाथ से साड़ी बनाकर उन्हें दी। जब वो इस पद से रिटायर हुए तो उन्होंने पटना लौटकर साधारण जिंदगी ही बिताई।

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