स्वामी विवेकानंद से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियाँ
Swami Vivekananda Rochak Jankari
व्यापारी की भूल
विवेकानंद जी को एक बार एक धनी व्यापारी ने अपने यहाँ भोजन पर आमंत्रित किया. विवेकानंद जी के पहुंचने पर व्यापारी ने उनका स्वागत किया. भोजनादि से निवृत्त होने के बाद, वे व्यापारी की बैठक में बैठ गए.
तब उन दोनों के बीच जीवन धर्म-दर्शन पर चर्चा होने लगी. व्यापारी ईश्वर को नहीं मानता था इसलिए चर्चा के दौरान उसने प्रश्न उठाया कि – “मूर्ति पूजा क्यों की जाती हैं? एक बेजान मूर्ति किसी को आखिर क्या दे सकती हैं? मुझे इन सब बातों में यकीन नही है.”
विवेकानंद जी ने अपनी नजर बैठक की दीवारों पर डाली तो सामने की दीवार पर एक फोटो टंगा हुआ था और उस पर फूलों की माला डली हुई थी.
विवेकानंद जी उठकर उस फोटो के पास गये और बोले -” ये तस्वीर किसकी हैं ?”
व्यापारी ने जवाब दिया- “ये मेरे पूज्य पिता जी की हैं कुछ साल पहले इनका निधन हो गया था.”
विवेकानंद जी उस तस्वीर को दीवार से उतरा और उस व्यापारी के हाथ में देते हुए बोले-” अब इस तस्वीर पर थूकों और नीचे पटक दो “
यह सुनकर व्यापारी सन्न रहा गया वह गुस्से से बोला -” आप ये कैसे कहं सकते हो, ये मेरे पूज्य पिताजी की फोटो हैं”.
इस पर विवेकानंद जी ने कहा कि -” इन्हें गुजरे हुए तो एक अरसा हो गया हैं अब तो ये एक बेजान फोटो हैं , इसमें न तो जान हैं और न ही इसमें आवाज हैं , फिर भी आप इसका अनादर नहीं कर सकते हो क्योकि आप इसमें अपने पिता का स्वरूप देखते हो “.
इसी प्रकार मूर्ति पूजा करने वाले मूर्ति में भगवान का स्वरूप देखते हैं. हम जानते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी हैं वह कण -कण में समाया हुआ हैं. मन को एकाग्र करने के लिए ही लोग मूर्ति पूजा करते हैं.
यह सुनकर व्यापारी को अपनी भूल का अहसास हो गया और वह विवेकानंद जी के चरणों में गिरकर माफ़ी मागने लगा.
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मंजिल की सही पहचान
एक बार स्वामी विवेकानन्द के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो देखने में बहुत दुखी लग रहा था. वह व्यक्ति आते ही स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला कि महाराज, मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूँ. मैं अपने दैनिक जीवन में बहुत मेहनत करता हूँ, काफी लगन से भी काम करता हूँ लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाया. भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है कि मैं पढ़ा लिखा और मेहनती होते हुए भी कभी कामयाब नहीं हो पाया हूँ, धनवान नहीं हो पाया हूँ.
स्वामी जी उस व्यक्ति की परेशानी को पल भर में ही समझ गए. उन दिनों स्वामी जी के पास एक छोटा सा पालतू कुत्ता था, उन्होंने उस व्यक्ति से कहा, “तुम कुछ दूर जरा मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा.”
आदमी ने बड़े आश्चर्य से स्वामी जी की ओर देखा और फिर कुत्ते को लेकर कुछ दूर निकल पड़ा. काफी देर तक अच्छी खासी सैर करा कर जब वो व्यक्ति वापस स्वामी जी के पास पहुँचा तो स्वामी जी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था जबकि कुत्ता हाँफ रहा था और बहुत थका हुआ लग रहा था. स्वामी जी ने व्यक्ति से कहा, “कि ये कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया जबकि तुम तो अभी भी साफ सुथरे और बिना थके दिख रहे हो.”
व्यक्ति ने कहां, “मैं तो सीधा साधा अपने रास्ते पे चल रहा था लेकिन ये कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था. हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसीलिए ये थक गया है.”
स्वामी जी ने मुस्कुरा कर कहां, “यही तुम्हारे सभी प्रश्नों का जवाब है, तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आस-पास ही है वो ज्यादा दूर नहीं है लेकिन तुम मंजिल पे जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो.”
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मन की शक्ति अभ्यास से आती है
यह बात उन दिनों की है जब स्वामी विवेकानंद देश भ्रमण में थे. साथ में उनके एक गुरु भाई भी थे. स्वाध्याय, सत्संग एवं कठोर तप का अविराम सिलसिला चल रहा था. जहां कहीं अच्छे ग्रंथ मिलते, वे उनको पढ़ना नहीं भूलते थे. किसी नयी जगह जाने पर उनकी सब से पहली तलाश किसी अच्छे पुस्तकालय की रहती.
एक जगह एक पुस्तकालय ने उन्हें बहुत आकर्षित किया. उन्होंने सोचा, क्यों न यहां थोड़े दिनों तक डेरा जमाया जाये. उनके गुरुभाई उन्हें पुस्तकालय से संस्कृत और अंग्रेजी की नयी-नयी किताबें लाकर देते थे. स्वामी जी उन्हें पढ़कर अगले दिन वापस कर देते.
रोज नयी किताबें वह भी पर्याप्त पृष्ठों वाली इस तरह से देते एवं वापस लेते हुए उस पुस्तकालय का अधीक्षक बड़ा हैरान हो गया. उसने स्वामी जी के गुरु भाई से कहा, “क्या आप इतनी सारी नयी-नयी किताबें केवल देखने के लिए ले जाते हैं? यदि इन्हें देखना ही है, तो मैं यों ही यहां पर दिखा देता हूँ. रोज इतना वजन उठाने की क्या जरूरत है.”
लाइब्रेरियन की इस बात पर स्वामी जी के गुरु भाई ने गंभीरतापूर्वक कहा, “जैसा आप समझ रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं है. हमारे गुरु भाई इन सब पुस्तकों को पूरी गंभीरता से पढ़ते हैं, फिर वापस करते हैं.”
इस उत्तर से आश्चर्यचकित होते हुए लाइब्रेरियन ने कहा, यदि ऐसा है तो मैं उनसे जरूर मिलना चाहूंगा. अगले दिन स्वामी जी उससे मिले और कहा, महाशय ! आप हैरान न हों. मैंने न केवल उन किताबों को पढ़ा है, बल्कि उनको याद भी कर लिया है. इतना कहते हुए उन्होंने वापस की गयी कुछ किताबें उसे थमायी और उनके कई महत्वपूर्ण अंशों को शब्दश: सुना दिया.
लाइब्रेरियन चकित रह गया. उसने उनकी याददाश्त का रहस्य पूंछा. स्वामी जी बोले, “अगर पूरी तरह एकाग्र होकर पढ़ा जाए, तो चीजें दिमाग में अंकित हो जाती हैं. पर इसके लिए आवश्यक है कि मन की धारणशक्ति अधिक से अधिक हो और वह शक्ति अभ्यास से आती है.”
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नारी का सदैव सम्मान करे
एक विदेशी महिला स्वामी विवेकानंद के समीप आकर बोली “मैं आपस शादी करना चाहती हूँ.” विवेकानंद बोले क्यों?मुझसे क्यों ?क्या आप जानती नहीं की मैं एक सन्यासी हूं?औरत बोली, “मैं आपके जैसा ही गौरवशाली, सुशील और तेजोमयी पुत्र चाहती हूं और वह तब ही संभव होगा. जब आप मुझसे विवाह करेंगे.
स्वामी विवेकानंद बोले, “हमारी शादी तो संभव नहीं है, परन्तु हां एक उपाय है. औरत- क्या? विवेकानंद बोले, “आज से मैं ही आपका पुत्र बन जाता हूं. आज से आप मेरी मां बन जाओ. आपको मेरे रूप में मेरे जैसा बेटा मिल जाएगा. औरत विवेकानंद के चरणों में गिर गयी और बोली की आप साक्षात ईश्वर के रूप हैं. इसे कहते है पुरुष और ये होता है पुरुषार्थ. एक सच्चा पुरुष सच्चा मर्द वो ही होता है जो हर नारी के प्रति अपने अन्दर मातृत्व की भावना उत्पन्न कर सके.
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सतर्कता व चतुराई
एक बार स्वामी विवेकानंद ट्रेन में यात्रा कर रहे थे. उन्होंने अपने हाथ में राजा द्वारा उपहार में दी गयी घड़ी पहनी थी. वही उनके पास में कुछ लडकियां भी बैठी थी जो स्वामी विवेकानंद की वेशभूषा का मजाक उड़ा रही थी. तभी उन्होंने स्वामी जी का मजाक उड़ाने की ठानी. उन्होंने स्वामीजी को उनकी घडी उन्हें देने को कहा और यदि उन्होंने नहीं दी तो वे सुरक्षाकर्मी से कहेंगे की स्वामी जी उनके साथ शारीरिक शोषण कर रहे थे. ऐसा कहंते हुए उन्होंने स्वामी जी को धमकाया. तभी स्वामी जी ने बहरा होने का नाटक किया और लडकियों से वे जो कुछ भी चाहती है उसे लिखकर देने को कहा. लडकियों ने वो जो कुछ भी चाहती है वो लिखा और स्वामी जी को दे दिया. तभी स्वामी जी बोले, “सुरक्षाकर्मी को बुलाइये, मुझे शिकायत करनी है.”
इस तरह विवेकानंद हमेशा सतर्क और चालाक रहते थे.
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धन्यवाद 🙂